बुधवार, 6 जून 2012
रविवार, 13 मई 2012
किसकी गोदी में अंकुर से फूटे ,महके और मुस्काए
किसकी ममता ने सींचा,सहलाया,बीज व्रक्छ बन जाए
किसके आंचल में लुक छिपकर,तुमने आँख मिचोनी खेली
कौन ओदकर बीट बचपन,तुमसे फिर तुतलाकर बोली
,
कौन सो गया नीद तुम्हारी,कौन जगा गहरी रातों में
कष्ट तुम्हारा दर्द हमारा,क्या रिश्ता था उन बातों में
किसने देवी देव पुजाये,कोई सङ्कट तुम्हे न घेरे
मन्दिर में परशाद चडाए,मांगी मंनत साँझ सबेरे
किसके कांधे पर सिर रखकर,बचपन को आवाज लगाई
फिर से मैया मोरी कहकर,ममता की कुछ उमर बढाई
किसने हाथ पकड कर तुमको,जीवन के सोपान चडाए
क्या अच्छा क्या बुरा बताकर,मानवता के गुण समझाये
समय मिले तो खोल खिद्कियाँ,मन के अन्दर कभी झाँकना
गर्द हटा जीवन पुस्तक की,फिर अतीत के पृष्ठ बांचना
सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
जिसे हम गीत कहते हैं
जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
सहज संवेदनायें हैं
किसी कवि ने कहा करुणा-कलित हो चंद छंदों में
बनी सत प्रेरणा सद भावना समवेत ग्रंथों में
वनों में रम रहे ऋषि ने कहा जो वेद-वाणी में
वो बचपन में सुनी हमने कभी माँ से कहानी में
विगत में ताड़ पत्रों पर लिखी जातक कथायें हैं
समय की मान्यतायें हैं
जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
सहज संवेदनायें हैं
यही तो पत्थरों में प्रस्फुटित परिकल्पना सी है
यही तस्वीर के रंग में सजाई अल्पना सी है
अश्रुपूरित आँख की ये अनकही अनुयाचना सी है
दुआ को उठ रहे दो हाथ की ये वंदना सी है
निरंतर मंदिरों में गूँजती सी प्रार्थनायें हैं
समर्पित साधनायें हैं
जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
सहज संवेदनायें हैं
नदी तट बैठ हमने भावना के दीप-दहकाये
किये जल में प्रवाहित कुछ नहीं सोचा कहाँ जाये
कोई ठहरे वहीं कुछ बह गये मझधार में आये
किसी को ले गई लहरें बहा उस पार पहुँचाये
हृदय के भाव शब्दों को समर्पित व्यंजनायें हैं
कवि की कल्पनायें हैं
जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
सहज संवेदनायें हैं
शनिवार, 18 फ़रवरी 2012
नज़र से नज़रें मिले तो
नज़र से नज़रें मिले तो
बाँच लेना मौन मेरा
लाज के उस एक झीने आवरण से
बिन कहे सब कुछ बताना
प्यार का पहला चरण है
और यदि नज़रें झुकें तो समझ जाना
अनकहा ये समर्पण है
मौन का निःशब्द क्षण है
आँख की गहराइयाँ भी झील से ज़्यादा बड़ी है
तुम उतर पाए अगर तो
प्यार का मोती मिलेगा
जो अभी तक अनछुआ है
और बिन मांगी दुआ है
जो उतर आई किनारों पर
उस सुनहरी साँझ का जलता हुआ पहला दिया है
तुम अगर पहचान पाये
तुम अगर ये जान पाये
इस समुन्दर में यहाँ सीपी बहुत हैं
किन्तु सबमें तो वही मोती नहीं बनता
चितवनों से दे निमंत्रण जो उतर जाये हृदय में
मौन हो जाता मुखर है
मौन का निःशब्द स्वर है
नज़र से नज़रें मिलें तो
बाँच लेना मौन मेरा
मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में
किन्तु मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
शब्द निकले हैं सफ़र पर अर्थ अपना ढूँढ़ लाने
चल पड़े मन्तव्य ले गंतव्य उसका आज़माने
अनकही बातें भी अक्सर शीत कर देतीं शिरायें
ये जिया अहसास है अभिव्यक्ति का बंधन नहीं है
और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
हमारी आँख का पानी तुम्हारी आँख धोये ये कभी होता नहीं है
ज्यों किसी की नींद कोई दूसरा सोता नहीं है
उमड़ता बादल भले बरसे कहीं बरसात बनकर
प्रेम की पेंगे बढ़ाता मन चला सावन नहीं है
और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
जो स्वयं बैठे अहम् की कुंडली में बांध ली है लौह जैसी श्रंखलायें
हो गए पत्थर सभी जज़्बात जिनके वे पता संवेदना का क्या बतायें
रूबरू जो कर न पाये सूरतों को आइने में
और कुछ होगा मगर दर्पण नहीं है
और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
है कहाँ आशीष देते हाथ जो मन का कलुष संताप धोयें
अश्रु से गीली हुई माटी में आकर शांति के सुख के कभी कुछ बीज बोये
आज शिष्टाचार के लगते मुखौटे हैं असीमित प्यार के किरदार छोटे
और मन का मान रखने सहज अपनापन नहीं है
और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
प्रार्थना अंतरमुखी अनुभूति मन की आत्मा का अर्थवाची आचमन है
शब्द परिभाषित नहीं करते इसे, वे सहज संवेदना का संकलन है
हो गए पाषाण राधा-कृष्ण भी अब रास-रस से युक्त वृंदावन नहीं है
अंग आभूषण सभी पानी चढ़े हैं हर चमकती चीज़ तो कंचन नहीं है
और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है
है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में
रविवार, 5 फ़रवरी 2012
शुभकामना संदेश
आज मेरा शांत सोया मन जगाने
फिर कोई शुभकामना संदेश आया है
तुम्हारी याद की अनुगूँज से
मेरे हृदय में हरकतें होती रहें
भले परछाइयाँ ही हों,
किसी के साथ का अहसास तो देती रहें
किसी संबंध की सम्भावना जुड़ने लगी हैं
नई इस चेतना का स्वर, समय ने
कंठ में भर गुनगुनाया है
कोई शुभकामना संदेश आया है
तुम्हें देख पाने की जिज्ञासा जगी रहे
बंद रहो आँखों में पलकों का परदा है
तन-मन में बस जाओ फूलों की खूशबू से
तुमको जी लेने को प्राण अभी ठहरा है
साथ रहो, बाँह गहो, भव-सागर तरना है
भक्ति-ज्ञान, पूजा-व्रत, जप-तप से
धोई यह काया है
कोई शुभकामना संदेश आया है
इतना अपनाओ मुझे, दुखदर्द मेरे
सब सूख गए पत्तों से झरने लगे
ज्ञान-वृक्ष हरियाये, चिंतन के
सागर में मन-मंथन करने लगे
एक नई राह मिले और लगे ज्यों कोई
सुबह का भूला--
शाम घर लौट आया है
कोई शुभकामना संदेश आया है
तुम ओढ़ चुनरिया
कल मेघों ने पाती भिजवाई बूँदों से
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना
जब कोयल कूक सुनाती हो
मीठे स्वर में कुछ गाती हो
ऋतु आने को, मदमाती हो
तुम पहन पायलिया घुँघरू की बजती आना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना
फूली केसर की क्यारी हो
खुशबू की खुली पिटारी हो
आई बसंत की बारी हो
गजरा जूड़े में बाँध मुझे भी महकाना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना
जब अंतरतम अकुलाता हो
मन पीड़ा से भर जाता हो
बिन बोले तुम्हें बुलाता हो
तुम अपनेपन की गर्मी से
मेरी पीड़ा को पिघलाना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना
जब चाँदी जड़ी जुन्हाई हो
चहुँ ओर चाँदनी छाई हो
महकी महकी पुरवाई हो
बहकी बहकी तनहाई हो
तुम श्याम बंसुरिया सी अधरों से लग जाना
बजती रहना मन-प्राणों में फिर मत जाना
कल मेघों ने पाती भिजवाई बूँदों से
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना
शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012
फूल से झरो...
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
बीज घरती में धरो
और निज सुगंध से
आसपास में रहो
शून्य को भरो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
भाँप लो गहराइयाँ
नाप लो ऊँचाइयाँ
भूमि को समतल बनाकर
नीर नदिया से बहो
बूँद बन सागर भरो
प्यास जन-मन की हरो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
सुधियों की सुगंध से
नेह के अनुबंध से
आँख को निचोड़ कर
अश्रु-जल भरो
नित्य आचमन करो
पीर का हवन करो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
त्रस्त हो, तटस्थ हो
उदय हो या अस्त हो
मौन को समेट कर
बैन-नैन से कहो
शब्द-सार को गहो
भाव-तरणी में बहो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
रास्ते दुर्गम न हों
जलते रहो तम न हो
हों उजाले इसलिए
अनकहे सत्य को कहो
चिंतन-मनन करो
धीर दुख-सुख में धरो
फूल से झरो प्ran phul se jharo
गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012
जब जब याद तुम्हारी आती
मन में है पीड़ा अकुलाती
शब्दों में आशीष पिरोकर
माँ लिखती है तुमको पाती
जब तक साँसों की सरगम है
जब तक यह शरीर सक्षम है
जब तक लिखती रहे कलम है
जब तक रिश्तों में कुछ दम है
माँ भेजेगी तुम को पाती
याद रहेगी फिर भी आती
कोई ऐसा दिन भी होगा
जब न लिखेगी माँ फिर पाती
लौ डूबेगी दिया बुझेगा
खतम रोशनी दिया न बाती
तब तुम क्या मेरे कानों में
राम नाम कहने आओगे
जीवन की अंतिम यात्रा में
काँधों पर लेकर जाओगे
बनकर धुआँ समा जायेगा
मेरा यह अस्तित्व गगन में
यही सत्य है यही नित्य है
दुहराते रहना तुम मन में
फिर पत्ते पर दिया जला कर
बहती धारा में रख देना
दूर जहाँ तक दिखे रोशनी
स्वर से मुक्ति मंत्र पढ़ देना
कहना माँ उस देश गई अब
जहाँ न जाये सखा-संघाती
धीरज धर धीरे से कहना
अब न दिखेगी माँ फिर पाती
अब न मिलेगी माँ की पाती
सोमवार, 30 जनवरी 2012
अतीत करवट ले रहा है
याद की तीली जलाई है किसी ने
एक भूले गीत सा अतीत करवट ले रहा है
एक दिन था जब धरा पर
बूँद भर पानी नहीं था
बादलों की बेरुखी थी
मेघ भी दानी नहीं था
ले गई सावन उड़ा कर
सिरफिरी सी वे हवायें
क्या पता किसको खबर
फिर लौटकर आयें न आयें
आँख के आँसू हमारे ले लिए सब
प्यास को आवाज़ पनघट दे रहा है
अतीत करवट ले रहा है
मुद्दतें गुज़री हुआ दुश्वार
जीना इस जहां में
मंज़िलों को खोजने
शामिल हुए हम कारवाँ में
थक गये जब चलते चलते
ज़िंदगी के इस सफ़र में
हो गए घूमिल हमारे
पदनिशाँ जो थे डगर में
और जीने की दुआ मांगी नहीं थी
क्यों मुझे यह आज मरघट दे रहा है
अतीत करवट ले रहा है
टूट कर सपना अधूरा, उन
प्रसंगों से कभी जुड़ता नहीं है
समय है गतिमान आगे बढ़ गया
तो लौटकर मुड़ता नहीं है
हो सुरक्षित लौ सदा
चाहे कोई तूफ़ान आये
प्यार के कंदील की ये
रोशनी बुझने न पाये
याद की तीली जलाई है किसी ने
एक भूले गीत सा अतीत करवट ले रहा है
रविवार, 29 जनवरी 2012
तुम आने की बात कहो तो
मैं तो नयनों के द्वार खोल कर
निशिदिन प्रतिपल बाट निहारूँ
तुम आने की बात कहो तो
पतझड़ यहाँ न आने पाये
मौसम का पहरा लगावा दूँ
उपवन में खिलते गुलाब का
रंग तनिक गहरा करवा दूँ
रजनीगंधा के फूलों से
रातों की मैं गंध चुराकर
चम्पा और चमेली के संग
हरसिंगार बनकर बिछ जाऊँ
तुम आने की बात कहो तो
नदियों में आ जाय रवानी
पत्थर पिघले पानी-पानी
पर्वत को राई कर दूँ मैं
सागर गागर में भर दूँ मैं
तुम कह दो तो हाथ उठाकर
नभ उतार धरती पर धर दूँ
चाँद-सूर्य से करूँ आरती
नक्षत्रों के दीप जलाऊँ
तुम आने की बात कहो तो
तुम चाहो बन जाऊँ अहिल्या
पत्थर बनकर करूँ प्रतीक्षा
जले न स्वाभिमान सीता का
कब तक लोगे अग्निपरीक्षा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
प्रेम रंग तन-मन रंग डालूँ
मीरा बनकर ज़हर पियूँ मैं
राधा बनकर रास रचाऊँ
तुम आने
गुरुवार, 26 जनवरी 2012
३७- साझ हुई सिंदूरी..
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे
लाल लाल फूल धरा सेज पर सजाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में , तुम्हारे इंतेज़ार में
पत्ते पलाश के सब पीले से पड़ गये
किसके वियोग में एक एक झड़ गये
अब भी कंकाल वृक्ष हौसला बनाये है
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे
सकरी पगडंडियां सब जवाँ हुई बनी गली
बाट जोहते हुए फूल बन गई कली
आज फिर माटी के घरोंदे बनाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में तुम्हारे इंतज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे
गंध उड़ी हौले से मधुवन जुहार आई
पवन चली पछुआ की आँगन बुहार आई
चौखट चौबारों पर चौक फिर पुराये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे
बूढे से बरगद ने बाँहें फैलाई है
नीम से निंबौरियाँ नीचे उतर आई हैं
पाखी-पखेरू ने पंख फैलाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे....
सोमवार, 23 जनवरी 2012
सूर्य कि उस रोशनी
सूर्य की उस रोशनी की धूल हूँ मैं
आग का गोला स्वयं हूँ
कोहरा हूँ मैं सुबह का
साँझ की मैं साँस हूँ
ज्योत्सना हूँ चन्द्रमा की
क्षितिज का आमास हूँ
मैंने जगाई है चमक दो पत्थरों में
धातुओं में घातु हूँ सोना खरा मैं
मैं हवा उस बाग की
जो पी गई खुशबू गुलाबों की
मैं कड़ी उस जीव की
जो है बनाता दायरे
वह तराज़ू सृष्टि की
जो तौलता, गिरता उठाता
मैं वही हूँ जो नहीं है
और है भी--
मैं सभी की आत्मा हूँ
मैं स्वयं परमात्मा हूँ
रात जलती रही...
कोई उजली सुबह जन्म ले इसलिए
रात जलती रही तम पिघलता रहा
तम के अहसास का आज दम तोड़ने
हमने देकर चुनौती जलाए दिये
आँधियाँ आ गई रोशनी माँगने
हमने भ्रम ओढ़कर घुप अँधेरे जिये
कुछ उजाले रहे, इसीलिये लौ सदा
घर बदलती रही, दीप जलता रहा
रात जलती रही तम पिघलता रहा
जिनको चाहा वही दूर जाते रहे
भूल जाते मगर याद आते रहे
सोचते ही रहे कौन हो तुम जिसे
कल्पना में बनाते-मिटाते रहे
एक अनुमान का घर पता पूछते
उम्र घटती रही, वक्त बढ़ता रहा
रात जलती रही तम पिघलता रहा
कोरा कागज़ कफ़न का था मन आपने
रंग चूनर के भर हौसले बुन दिये
प्राण पंछी ने आकर बसेरा किया
उम्र की शाख पर घोंसले बुन दिये
हम जिये तो मगर इस तरह से जिये
साँस चलती रही दम निकलता रहा
रात जलती rahii tam pighalta rha
कोई उजली सुबह जन्म ले इसलिए
रात जलती रही तम पिघलता रहा
तम के अहसास का आज दम तोड़ने
हमने देकर चुनौती जलाए दिये
आँधियाँ आ गई रोशनी माँगने
हमने भ्रम ओढ़कर घुप अँधेरे जिये
कुछ उजाले रहे, इसीलिये लौ सदा
घर बदलती रही, दीप जलता रहा
रात जलती रही तम पिघलता रहा
जिनको चाहा वही दूर जाते रहे
भूल जाते मगर याद आते रहे
सोचते ही रहे कौन हो तुम जिसे
कल्पना में बनाते-मिटाते रहे
एक अनुमान का घर पता पूछते
उम्र घटती रही, वक्त बढ़ता रहा
रात जलती रही तम पिघलता रहा
कोरा कागज़ कफ़न का था मन आपने
रंग चूनर के भर हौसले बुन दिये
प्राण पंछी ने आकर बसेरा किया
उम्र की शाख पर घोंसले बुन दिये
हम जिये तो मगर इस तरह से जिये
साँस चलती रही दम निकलता रहा
रात जलती rahii tam pighalta rha
शुक्रवार, 20 जनवरी 2012
ऋषभ उवाच: गुलज़ार : गुफ़्तगू के दौरान
ऋषभ उवाच: गुलज़ार : गुफ़्तगू के दौरान
आमने सामने बैटकर गुलजार साहब को सुनना जीवन का स्मरणीय पल खुली आँख का सपना
आमने सामने बैटकर गुलजार साहब को सुनना जीवन का स्मरणीय पल खुली आँख का सपना
शुक्रवार, 13 जनवरी 2012
आज ठंडक है हवाओं मे
हवायें मेघ की गगरी
उठाकर चल पड़ी है
अब न हम प्यासे रहेंगे
इस धरा पर
तृप्ति की सम्भावना के घर
कोई खिड़की खुली है
जिंदगी की भाषा का व्याकरण प्यार है
मन संज्ञा तन क्रिया करता करतार है
आचरण विशेषण है कर्म ही विस्तार है
इन्हीं पाँच तत्वों का समीकरण प्यार है
हृदय को पत्थर बनाकर समय ने जो लिख दिया है
हम जले तो भी मिलेगी राख में लिपटी कहानी
रेत पर लिखा गया यह उंगलियों का भ्रम नहीं है
जो हवा के पास आते ही मिटा दे सब निशानी
सोमवार, 9 जनवरी 2012
३४-उड़ता हुआ धुआँ हूँ
उड़ता हुआ धुआँ हूँ
रहने को सब जहां है
सारा फलक है मेरा
पर आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
न ही बंदिशों के घर थे
न ही रंजिशों के डर थे
न ही ख्वाहिशों के पर थे
अब तक चला हूँ आगे
चलता ही जा रहा हूँ
गुज़रे हुए समय का
कोई निशाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
वो आशिकी की रातें
शर्मो-हया की बातें
दिलकश सी मुलाकातें
सब उम्र का चलन था
बहका हुआ सा मन था
ये जो वक्त का भरम था
अब दर्मियाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
शिकवे न शिकायतें हैं
खामोश आयतें हैं
कैसी रवायतें हैं
क्यों कारवाँ में चलकर
अदना सा रहगुज़र हूँ
ये जानता हूँ लेकिन
अर्ज़े बयाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
जब भी सवालों से घिरा
माँगा नहीं है मशविरा
खुद ही उठाता हूँ गिरा
सागर हूँ बादलों को
पानी दिया हमेशा
प्यासा हूँ फिर भी कितना
ये इंतहा नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
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