सोमवार, 20 फ़रवरी 2012


जिसे हम गीत कहते हैं


जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                    सहज संवेदनायें हैं


किसी कवि ने कहा करुणा-कलित हो चंद छंदों में
बनी सत प्रेरणा  सद भावना समवेत ग्रंथों में
वनों में रम रहे ऋषि ने कहा जो वेद-वाणी में
वो बचपन में सुनी हमने कभी माँ से कहानी में
विगत में ताड़ पत्रों पर लिखी जातक कथायें हैं
                   समय की मान्यतायें हैं


जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                    सहज संवेदनायें हैं


यही तो पत्थरों में प्रस्फुटित परिकल्पना सी है
यही तस्वीर के रंग में सजाई अल्पना सी है
अश्रुपूरित आँख की ये अनकही अनुयाचना सी है
दुआ को उठ रहे दो हाथ की ये वंदना सी है
निरंतर मंदिरों में गूँजती सी प्रार्थनायें हैं
               समर्पित साधनायें हैं


जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                    सहज संवेदनायें हैं


नदी तट बैठ हमने भावना के दीप-दहकाये
किये जल में प्रवाहित कुछ नहीं सोचा कहाँ जाये
कोई ठहरे वहीं कुछ बह गये मझधार में आये
किसी को ले गई लहरें बहा उस पार पहुँचाये
हृदय के भाव शब्दों को समर्पित व्यंजनायें हैं
                   कवि की कल्पनायें हैं


जिसे हम गीत कहते हैं
किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                    सहज संवेदनायें हैं








शनिवार, 18 फ़रवरी 2012


नज़र से नज़रें मिले तो


नज़र से नज़रें मिले तो
बाँच लेना मौन मेरा


लाज के उस एक झीने आवरण से
बिन कहे सब कुछ बताना
प्यार का पहला चरण है
और यदि नज़रें झुकें तो समझ जाना
अनकहा ये समर्पण है
मौन का निःशब्द क्षण है


आँख की गहराइयाँ भी झील से ज़्यादा बड़ी है
तुम उतर पाए अगर तो
प्यार का मोती मिलेगा
जो अभी तक अनछुआ है
और बिन मांगी दुआ है
जो उतर आई किनारों पर
उस सुनहरी साँझ का जलता हुआ पहला दिया है


तुम अगर पहचान पाये
तुम अगर ये जान पाये
इस समुन्दर में यहाँ सीपी बहुत हैं
किन्तु सबमें तो वही मोती नहीं बनता
चितवनों से दे निमंत्रण जो उतर जाये हृदय में
मौन हो जाता मुखर है
मौन का निःशब्द स्वर है


नज़र से नज़रें मिलें तो
बाँच लेना मौन मेरा












मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में
किन्तु मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


शब्द निकले हैं सफ़र पर अर्थ अपना ढूँढ़ लाने
चल पड़े मन्तव्य ले गंतव्य उसका आज़माने
अनकही बातें भी अक्सर शीत कर देतीं शिरायें
ये जिया अहसास है अभिव्यक्ति का बंधन नहीं है
  और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


हमारी आँख का पानी तुम्हारी आँख धोये ये कभी होता नहीं है
ज्यों किसी की नींद कोई दूसरा सोता नहीं है
उमड़ता बादल भले बरसे कहीं बरसात बनकर
प्रेम की पेंगे बढ़ाता मन चला सावन नहीं है
  और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


जो स्वयं बैठे अहम्‌ की कुंडली में बांध ली है लौह जैसी श्रंखलायें
हो गए पत्थर सभी जज़्बात जिनके वे पता संवेदना का क्या बतायें
रूबरू जो कर न पाये सूरतों को आइने में
और कुछ होगा मगर दर्पण नहीं है
  और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


है कहाँ आशीष देते हाथ जो मन का कलुष संताप धोयें
अश्रु से गीली हुई माटी में आकर शांति के सुख के कभी कुछ बीज बोये
आज शिष्टाचार के लगते मुखौटे हैं असीमित प्यार के किरदार छोटे
और मन का मान रखने सहज अपनापन नहीं है
  और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


प्रार्थना अंतरमुखी अनुभूति मन की आत्मा का अर्थवाची आचमन है
शब्द परिभाषित नहीं करते इसे, वे सहज संवेदना का संकलन है
हो गए पाषाण राधा-कृष्ण भी अब रास-रस से युक्त वृंदावन नहीं है
अंग आभूषण सभी पानी चढ़े हैं हर चमकती चीज़ तो कंचन नहीं है
  और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है



है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में

रविवार, 5 फ़रवरी 2012



शुभकामना संदेश


आज मेरा शांत सोया मन जगाने
फिर कोई शुभकामना संदेश आया है


तुम्हारी याद की अनुगूँज से
मेरे हृदय में हरकतें होती रहें
भले परछाइयाँ ही हों,
किसी के साथ का अहसास तो देती रहें
किसी संबंध की सम्भावना जुड़ने लगी हैं
नई इस चेतना का स्वर, समय ने
कंठ में भर गुनगुनाया है
कोई शुभकामना संदेश आया है


तुम्हें देख पाने की जिज्ञासा जगी रहे
बंद रहो आँखों में पलकों का परदा है
तन-मन में बस जाओ फूलों की खूशबू से
तुमको जी लेने को प्राण अभी ठहरा है
साथ रहो, बाँह गहो, भव-सागर तरना है
भक्ति-ज्ञान, पूजा-व्रत, जप-तप से
धोई यह काया है
कोई शुभकामना संदेश आया है


इतना अपनाओ मुझे, दुखदर्द मेरे
सब सूख गए पत्तों से झरने लगे
ज्ञान-वृक्ष हरियाये, चिंतन के
सागर में मन-मंथन करने लगे
एक नई राह मिले और लगे ज्यों कोई
सुबह का भूला--
शाम घर लौट आया है
कोई शुभकामना संदेश आया है










तुम ओढ़ चुनरिया


कल मेघों ने पाती भिजवाई बूँदों से
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना


जब कोयल कूक सुनाती हो
मीठे स्वर में कुछ गाती हो
ऋतु आने को, मदमाती हो
तुम पहन पायलिया घुँघरू की बजती आना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना


फूली केसर की क्यारी हो
खुशबू की खुली पिटारी हो
आई बसंत की बारी हो
गजरा जूड़े में बाँध मुझे भी महकाना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना


जब अंतरतम अकुलाता हो
मन पीड़ा से भर जाता हो
बिन बोले तुम्हें बुलाता हो
तुम अपनेपन की गर्मी से
मेरी पीड़ा को पिघलाना
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना


जब चाँदी जड़ी जुन्हाई हो
चहुँ ओर चाँदनी छाई हो
महकी महकी पुरवाई हो
बहकी बहकी तनहाई हो
तुम श्याम बंसुरिया सी अधरों से लग जाना
बजती रहना मन-प्राणों में फिर मत जाना


कल मेघों ने पाती भिजवाई बूँदों से
तुम ओढ़ चुनरिया धानी सी मिलने आना








शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012



फूल से झरो...


फूल से झरो प्राण, फूल से झरो
बीज घरती में धरो
और निज सुगंध से
आसपास में रहो
शून्य को भरो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो


भाँप लो गहराइयाँ
नाप लो ऊँचाइयाँ
भूमि को समतल बनाकर
नीर नदिया से बहो
बूँद बन सागर भरो
प्यास जन-मन की हरो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो


सुधियों की सुगंध से
नेह के अनुबंध से
आँख को निचोड़ कर
अश्रु-जल भरो
नित्य आचमन करो
पीर का हवन करो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो


त्रस्त हो, तटस्थ हो
उदय हो या अस्त हो
मौन को समेट कर
बैन-नैन से कहो
शब्द-सार को गहो
भाव-तरणी में बहो
फूल से झरो प्राण, फूल से झरो


रास्ते दुर्गम न हों
जलते रहो तम न हो
हों उजाले इसलिए
अनकहे सत्य को कहो
चिंतन-मनन करो
धीर दुख-सुख में धरो
फूल से झरो प्ran phul se jharo


गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012




जब जब याद तुम्हारी आती
मन में है पीड़ा अकुलाती
शब्दों में आशीष पिरोकर
माँ लिखती है तुमको पाती


जब तक साँसों की सरगम है
जब तक यह शरीर सक्षम है
जब तक लिखती रहे कलम है
जब तक रिश्तों में कुछ दम है
 माँ भेजेगी तुम को पाती
 याद रहेगी फिर भी आती


कोई ऐसा दिन भी होगा
जब न लिखेगी माँ फिर पाती
लौ डूबेगी दिया बुझेगा
खतम रोशनी दिया न बाती
 तब तुम क्या मेरे कानों में
 राम नाम कहने आओगे
 जीवन की अंतिम यात्रा में
 काँधों पर लेकर जाओगे


बनकर धुआँ समा जायेगा
मेरा यह अस्तित्व गगन में
यही सत्य है यही नित्य है
दुहराते रहना तुम मन में
फिर पत्ते पर दिया जला कर
बहती धारा में रख देना
दूर जहाँ तक दिखे रोशनी
स्वर से मुक्ति मंत्र पढ़ देना


कहना माँ उस देश गई अब
जहाँ न जाये सखा-संघाती
धीरज धर धीरे से कहना
अब न दिखेगी माँ फिर पाती
अब न मिलेगी माँ की पाती