गुरुवार, 29 दिसंबर 2011


जाती हुई हर



जाती हुई हर वर्ष को

कैसे कहें हम अलविदा

बोझिल हुए मन कुछ बता

कैसे कहें हम अलविदा



गुज़रा हुआ लम्हा कोई

फिर लौटकर आता नहीं

क्या क्या लिया क्या खो दिया

अहसास मर जाता कहीं



याद है उंगली पकड़ कर

उम्र का सोपान चढ़ना

बिन कहे सब कुछ बताकर

मौन में गुरु-ज्ञान गढ़ना



तुम बनी साक्षी मेरी संवेदना की

जब कभी अनुभूति ने मुझ को रुलाया

सांतवना के शब्द तुमने ही कहे थे

गोद में लेकर मुझे तुमने सुलाया



हैं सभी सुधियाँ सुरक्षित

याद आओगी सदा

कैसे कहें हम अलविदा



हों भले रिश्ते अनेकों

समय सा साथी न कोई

बाँच ले पीड़ा पढे बिन

अश्रु ने जब आँख धोई



आयेगा सो जायेगा भी

ये सफ़र का सिलसिला है

कौन ठहरा है यहाँ पर

अनवरत चलना मिला है



लिख लिया हमने बहुत कुछ

ज़िंदगी की डायरी में

है नहीं मुमकिन सुनाना

महफ़िलों में शायरी में



आज के अंतिम क्षणों में

तुम हमें आशीष देना

और जो अब तक दिया है

याद रखेंगे सदा



तुम क्षमा करना अगर

हमसे हुई कोई खता

बोझिल छुपे मन कुछ बता

कैसे कहें हम अलविदा











मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

न सोचो ढल गया दिन वक्त की तारीख में

उतरती शाम की रंगीन होती सुर्खियाँ देखो

न भय खाओ अंधेरों से बदलता दौर है ये

निकलती सूर्य के घर से चमकती रश्मियाँ देखो

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

तलाशा तो बहुत उस मंजिले मक़सूद को हमने

ये गुजरे कारवाँ की गर्द ही खुद दास्ताँ होगी

गवाही गर्दिशों की इंतजारे वक्त ही देगा

अंधेरों में पल़ी ये रोशनी जब भी जवाँ होगी

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011


आओ हम लौट चलें


दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
 लगने ही वाला अब
 सपनों का मेला है
 आओ हम लौट चलें
 जाने की बेला है।


उलझे-उलझे से दिन
सुलझी-सुलझी सी रातें हों
हम हो और तुम हों
मीठी-मीठी सी बातें हों
  तन भीगे मन भीगे
  बादल बरसातें हो
  महुआ के पेड तले
  महकी सी यादें हों
   मेरे इन सपनों को
   मन चाहा वर देना
   अनगाये गीतों को
   कोई तो स्वर देना
    अन्बोले शब्दों का
    भार बहुत झेला है
    आओ हम लौट चलें
    जाने की बेला है।


बालू की चादर पर
स्वप्निल घरोंदे थे
हमने बनाये थे
हमने ही रौंदे थे
 पुरवइया पवन बही
 बिखर गए पारा से
 आई जो एक लहर
 सिमट गये धारा से
  मंदिर में दीप जले
  पंछी घर लौट चले
  लगता है शाम हुई
  घर-देहरी दीप जले
   कितना भरमाता ये
   जीवन का खेला है
   आओ हम लौट चलें
   जाने की बेला है।


रिश्ते संबंधों की
किससे क्या बात करें
खुद के अहसासों से
जब तब संवाद करें
 अपनों की बात चले
 आँखें मत भर लाना
 जो भी सौगात मिले
 झोली भर ले आना
  धरती बस मिल जाये
  माँगे आकाश नहीं
  पाँव चले राह बने
  तिल भर तलाश नहीं
   कारवाँ में चलता
   हर आदमी अकेला है
   आओ हम लौट चलें
 
 जाने की बेला है।


दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
 लगने ही वाला अब
 सपनों का मेला है

 आओ हम लौट चलें
 जाने की बेला है।

किस किस को...


किस किस को बतलायें
किसको हम दिखलायें
कैसे इस जीवन की फटी हुई चादर को
 सिला और ओढ़ा है।


अश्रु भले सूखें पर आँख में नमीं रहे
दर्द भीगते रहें ज़िंदगी थमी रहे
इसलिए तमाम उम्र रात-रात जागकर
 एक एक शबनम को
 आँखों में जोड़ा है

 किस किस को बतलायें...


शून्य चेतना बनें प्राण छूटने लगे
अंत समय शांति हो मोह टूटने लगे
इसलिए तमाम उम्र नित्य ध्यान मग्न हो
 एक एक बंधन को
 धीरे से तोड़ा है
 किस किस को बतलायें...


कार्य कठिन हो भले कालजयी दृष्टि हो
लक्ष्य अर्थपूर्ण हो तुम समग्र सृष्टि हो
इसलिए तमाम उम्र हम कहीं रुके नहीं
 एक एक राह को
 मंज़िल तक मोड़ा है


किस किस को बतलायें
किसको हम दिखलायें
कैसे इस जीवन की फटी हुई चादर को
 सिला और ओढ़ा है।



सोमवार, 12 दिसंबर 2011







एक टूटा मन बचा है


दे दिया तुम को सभी कुछ
पास जो भी था हमारे
अब तुम्हें देने अकेला
एक टूटा मन बचा है
आँख में अटका हुआ सा
अकिंचन जल-कण बचा है।


नींद को आँचल उढ़ाने
आ गई सुधियाँ सिरहाने
जो न सम्भव देखपाना
देख सपनों के बहाने
याद करने के लिए शिशु-सा सरल बचपन बचा है
  और टूटा मन बचा है


व्यर्थ ही देखा किये हम
छल भरे सपने सजीले
आँसुओं में डूबकर
होते रहे सब दृश्य गीले
जो नहीं मोहताज मौसम का वही सावन बचा है

 और टूटा मन बचा है


अनगिनत संकल्प सूची में
कभी संचित किये थे
अनवरत होती  उपेक्षा से
वही वंचित हु ये थे
खोलता अनुबंध की गाँठें बँधा बंधन बचा है
  और टूटा मन बचा है


जो नहीं मिलता उसे हम
खोजते कब तक रहे
सत्य को स्वीकार समझौता
समय से हम करें
चितवनों में तैरता सा एक सूनापन बचा है
  और टूटा मन बचा है


दे दिया तुम को सभी कुछ
पास जो भी था हमारे
अब तुम्हें देने अकेला
एक टूटा मन बचा है
आँख में अटका हुआ सा
अकिंचन जल-कण बचा है।
 हमारे प्यार की अनुभूति
हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भला क्यों खोजते ग़ैरों में हम संदर्भ अपनों के
हक़ीकत में ये क्या जीना सहारे सिर्फ़ सपनों के
अगर प्रारब्ध होता है कहीं तो प्राप्ति भी होगी
भले छलती रहे तृष्णा कभी तो तृप्ति भी होगी
 समय आकाश सी सब दूरियाँ नज़दीक ले आता
 हमें भी मिल गई होती सहज संवेदना क्षण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भँवर में नाव थी सनसन हवायें घोर अंधियारा
उन्हें इस पार तक लाये दिखाते भोर का तारा
जिन्हें देकर सहारा इस किनारे तक हमीं लाये
लगे जब डूबने खुद हम न थे उनके कहीं साये
 हमें तूफान दरिया के न यों झकझोरने पाते
 दिखी होती सहारे की कोई सम्भावना तृण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


तुम्हें जब नज़र भर देखा जगी आसक्ति अकुलाई
नयन में बँद कर देखा उमड़ कर भक्ति भर आई
हमें जी जान से ज़्यादा जिये संबंध प्यारे हैं
मगर हम भाग्य के दर पर मिले अनुबंध हारे हैं
 कभी तुम टूटते दिल की कोई आवाज़ सुन पाते
 कभी पढ़ते नयन में मौन सी भाषा निमंत्रण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


जिसे हम सच समझते थे वही लगने लगा है भ्रम
रहे हम जोड़ते तिनके बनाने घोंसले का क्रम
हृदय की खिड़कियाँ खोलें अंधेरों को उजालों से नहलवायें
पड़े जड़वत विचारों को उठाकर चेतना के वस्त्र पहनायें
 अगर हम देख सकते खुद स्वयं को आइना बनकर
 कभी भी सूरतें होती नहीं मोहताज दर्पण की


हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की