प्यासे अधरों की..
मैं सीपी से गिरकर तो मोती नहीं बना
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
सागर में है निस्वार्थ समर्पण बूँदों का
ऐसे अर्पण की दूर-दृष्टि कितनी होगी
अपना वजूद खोए जो औरों की खातिर
उस अंतरमन की आत्मतुष्टि कितनी होगी
मैंने भी किया प्रयास सभी तन-मन दे दूँ
बो कर खुशियों के बीज दर्द की फसल उगाई है मैंने
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
मत काटो-छाँटो हरी-भरी शाखाओं को
ये पेड़ खड़े सन्यासी से दे रहे दुआ
आये आँधी पानी इनका संयम टूटे
पर रहे अड़िग कोई भी विचलित नहीं हुआ
तन तपा धूप में तूफानों के तेवर देखे
झुलसे प्राणों को छाया देकर तृप्ति जगाई है मैंने
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
कुछ फूल बाँटते रहते हैं खुशबू सबको
अपने अंदर काँटों की चुभन छुपाकर भी
कुछ जले मोम से तम से समझौता करने
अपने जीवन के पल-पल को पिछला कर भी
उनका आँसू मेरी आँखों से बह न सका
छलकी आँखों मुस्कान जगाई है मैंने
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
देते देते भी शायद कुछ कर्ज़ रह गए रिश्तों में
धीरे-धीरे सपनों के सुंदर महल ढह गए किस्तों में
देखा मैंने हाथों में भी कुछ ऐसी ही रेखाएँ थी
हो समाधान जिनका मुश्किल कुछ ऐसी ही शंकाएं थीं
मुझको मन चाही मंज़िल चाहे मिली न हो
भूले भटकों को राह दिखाई है मैंने
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
मैं सीपी में गिरकर तो मोती नहीं बना
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