डूब गया पोर-पोर मन हुआ सराबोर
बीती सी याद बन मेह बरसने लगी
खुला खुला आँगन था चाँद-सितारों से भरा
किरन डोर थाम रात धीरे से उतरती रही
सपनों के फूल गूँथे सिरहाने छोड़ गई
आँख खुली देखा तो धूप निखरती रही
बाहर की बगिया में फूल थे गुलाब के
चूम लिया करते थे बचपन उछाल के
भीगी सी माटी में दबे पाँव चलना
चुपके से राम जी की गुड़िया पकड़ना
तितली के साथ साथ दूर दौड़ जाना
बारिश की बूँदों में भीगना नहाना
किसने बिखेर दिये रंग आसमान में
इंद्रधनुष देखते उम्र खिसकने लगी
बीती सी याद बन मेह बरसने लगी
गुड़ियों के ब्याह किये और किये गौने
अखियों में आँज लिए सपने सलौने
ममता की आँखों में हो गई सयानी
मोह जगा आँखों में भर आया पानी
गीत गवे ढोल बजे और बजी शहनाई
मंगल महूर्त बीच हो गई पराई
घूंघट में लाज लिए अंग सजे गहने
कंगन औ बिंदिया और बाजूबंद पहने
बाबुल को डाल दिये बाहों के घेरे
भइया भिजइयो सवेरे-सवेरे
आँसू से भीग गये चौखट चौबारे
छूटा जो अंगना तो आँख फड़कने लगी
बीती सी याद बन मेह बरसने लगी
जल्दी में भूल गई भौजी से कहना
भोरई भतीजे को देना ठिठौना
आवेंगी मिलने को संग की सहेली
कहना मैं पूछूँगी आकर पहेली
सुअना से कहना मैं जल्दी चली आऊँगी
हरी-हरी मिर्चे और जामफल लाऊँगी
मोती ने दो दिन से रोटी नहीं खाई
भइया ने दी होगी उसको दवाई
आज मेरी मइया को नींद नहीं आयेगी
रात भर देवी और देवता पुजायेगी
एक बार मइया को फिर से निहार आऊं
गोद सिमट जाने की चाह तरसने लगी
बीती सी याद बन मेह बरसने लगी
डूब गया पोर पोर मन हुआ सराबोर
बचपन की यादों और युवा द्वंद्व को बहुत ही कोमलता और भावुकता से उजागर किया गया है इस कविता में। बधाई स्वीकारें॥
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