जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
व्यक्ति को विचार के मान-दण्ड छल गए
खो गया आसमान प्यार की पतंग का
सिलसिला खतम हुआ उठ रही उमंग का
कुछ सुलग रहा यहाँ उठ रहा धुआँ-धुआँ
आग में अतीत की वर्तमान जल गए
जिस घडी आप हम वर्ग में बदल गए
दिन उदास हो गए शाम है डरी-डरी
बात रात ने कही आँख भोर की भरी
दर्द पिघलने लगे, अश्रु में बदल गए
आँख से गिरे कहीं रजकणों में मिल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
तुम प्रकृति-पुरुष सदा प्यार के प्रतीक थे
और हम सृजन लिए स्रुष्टि के समीप थे
किन्तु जब ज़मीन पर चाँद चाहने लगे
हसरतों की गोद में हादसे मचल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
स्वप्न गिर गए सभी पर कटे जटायु से
दो घड़ी की खुशी मिल न सकी आयु से
ज़िंदगी निबाहने की बात सोचते रहे
जाने कौन द्वार से फ़ासले निकल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
व्यक्ति को विचार के मान-दंड छल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए
व्यक्ति को विचार के मान-दण्ड छल गए
पुरुष और स्त्री तथा प्रकृति और सृजन का सुंदर प्रयोग किया है आपने। बधाई॥
जवाब देंहटाएंविनीता जी आपकी यह रचना दो बार मंच पर सुन चुका हूँ आज पढ़ने को मिली आभार
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