३४-उड़ता हुआ धुआँ हूँ
उड़ता हुआ धुआँ हूँ
रहने को सब जहां है
सारा फलक है मेरा
पर आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
न ही बंदिशों के घर थे
न ही रंजिशों के डर थे
न ही ख्वाहिशों के पर थे
अब तक चला हूँ आगे
चलता ही जा रहा हूँ
गुज़रे हुए समय का
कोई निशाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
वो आशिकी की रातें
शर्मो-हया की बातें
दिलकश सी मुलाकातें
सब उम्र का चलन था
बहका हुआ सा मन था
ये जो वक्त का भरम था
अब दर्मियाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
शिकवे न शिकायतें हैं
खामोश आयतें हैं
कैसी रवायतें हैं
क्यों कारवाँ में चलकर
अदना सा रहगुज़र हूँ
ये जानता हूँ लेकिन
अर्ज़े बयाँ नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
जब भी सवालों से घिरा
माँगा नहीं है मशविरा
खुद ही उठाता हूँ गिरा
सागर हूँ बादलों को
पानी दिया हमेशा
प्यासा हूँ फिर भी कितना
ये इंतहा नहीं है
आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
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रचनाकार/मनुष्य का आत्मविश्वास बहुत सलीके से व्यक्त हुआ है.
जवाब देंहटाएंगरीब है तो क्या संवेदनाएं तो जीवित हैं॥
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
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