आओ हम लौट चलें
दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
लगने ही वाला अब
सपनों का मेला है
आओ हम लौट चलें
जाने की बेला है।
उलझे-उलझे से दिन
सुलझी-सुलझी सी रातें हों
हम हो और तुम हों
मीठी-मीठी सी बातें हों
तन भीगे मन भीगे
बादल बरसातें हो
महुआ के पेड तले
महकी सी यादें हों
मेरे इन सपनों को
मन चाहा वर देना
अनगाये गीतों को
कोई तो स्वर देना
अन्बोले शब्दों का
भार बहुत झेला है
आओ हम लौट चलें
जाने की बेला है।
बालू की चादर पर
स्वप्निल घरोंदे थे
हमने बनाये थे
हमने ही रौंदे थे
पुरवइया पवन बही
बिखर गए पारा से
आई जो एक लहर
सिमट गये धारा से
मंदिर में दीप जले
पंछी घर लौट चले
लगता है शाम हुई
घर-देहरी दीप जले
कितना भरमाता ये
जीवन का खेला है
आओ हम लौट चलें
जाने की बेला है।
रिश्ते संबंधों की
किससे क्या बात करें
खुद के अहसासों से
जब तब संवाद करें
अपनों की बात चले
आँखें मत भर लाना
जो भी सौगात मिले
झोली भर ले आना
धरती बस मिल जाये
माँगे आकाश नहीं
पाँव चले राह बने
तिल भर तलाश नहीं
कारवाँ में चलता
हर आदमी अकेला है
आओ हम लौट चलें
जाने की बेला है।
दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
लगने ही वाला अब
सपनों का मेला है
आओ हम लौट चलें
जाने की बेला है।
जीवन की संध्या में हर कोई ऐसे ही अहसासों से कभी न कभी गुज़रता ही है॥
जवाब देंहटाएंआपके सारे ही गीत विम्बधर्मी और मर्मस्पर्शी हैं.
जवाब देंहटाएंअभी कलंब [महाराष्ट्र] से लौटा हूँ. 2011 के भीतर ही लिख भेजूँगा अपनी बात.
देरी के लिए शर्मिंदा हूँ.