बुधवार, 22 मई 2013

जीवन भर रिश्ते बनते हैं 
रिश्तों में जो जीवन भर दे 
ऐसा कोई नहीं मिला 
   
         बाल सुलभ सपनों के द्वारा 
        मैंने भी आकाश छुआ था 
        सम्बन्धों की हार जीत में 
        जाना जीवन एक जुआ था 
जो रोता बचपन बहला दे 
चाँद खिलौना को घर ला दे 
ऐसा कोई नहीं मिला 
 
          मिलकर जो गुलाब रोपा था 
          काँटों का समुदाय हो गया 
         हँसी खुशी जो मन सोपा था 
         पीड़ा का परियाय हो गया 
प्रणय गंध की वो कस्तूरी 
प्राणों में भर लेता पूरी 
ऐसा कोई नहीं मिला 
 
          हो निषेध या नेह निमंत्रण 
          सब सहर्ष स्वीकार्य हो गया 
          ऐसे भी अवसर आये हैं 
          चुप रहना अनिवार्य हो गया 
आँखों की भाषा पद लेता 
पत्थर में प्रतिमा गद देता 
ऐसा कॊई नहीं मिला 
 
          मौन हुआ मुखरित वाणी में 
         शब्द शब्द अध्याय हो गया 
         अर्थ सभी के अलग अलग थे 
         किन्तु एक अभिप्राय हो गया 
जो संवाद बिना मन तोले 
अनुबंधों की गिरह टटोले 
ऐसा कोई नहीं मिला 
 
जीवन भर रिश्ते बनते हैं 
जो रिश्तों में जीवन भर दे 
ऐसा कोई नहीं मिला 

किसकी गोदी में अंकुर से फूटे ,महके और मुस्काए
किसकी ममता ने सींचा,सहलाया,बीज व्रक्छ बन जाए
किसके आंचल में लुक छिपकर,तुमने आँख मिचोनी खेली
कौन ओदकर बीता  बचपन,तुमसे फिर तुतलाकर बोली
,
कौन सो गया नीद तुम्हारी,कौन जगा गहरी रातों में
कष्ट तुम्हारा दर्द हमारा,क्या रिश्ता था उन बातों में
किसने देवी देव पुजाये,कोई सङ्कट तुम्हे न घेरे
मन्दिर में परशाद चडाए,मांगी मंनत साँझ सबेरे

किसके कांधे पर सिर रखकर,बचपन को आवाज लगाई
फिर से मैया मोरी कहकर,ममता की कुछ उमर बढाई
किसने हाथ पकड कर तुमको,जीवन के सोपान चडाए
क्या अच्छा क्या बुरा बताकर,मानवता के गुण समझाये

समय मिले तो खोल खिद्कियाँ,मन के अन्दर कभी झाँकना
गर्द हटा जीवन पुस्तक की,फिर अतीत के पृष्ठ बांचना
लगे हिमालय  की ऊंचायी,सागर सी गहराई आए
उमर लगे सूरज चन्दा की,वर्ष गांठ वर्षों टक आए


दर्प न लूते ग्यान तुम्हारा,द्वेष मिटा सदभाव जगाना
गर्व न करना ऊंचायी का,बहुत अभी चदकर है जाना
जो चाहो तुम सहज सुलभ हो,बनो सभी में कुशल दक्ष तुम
तुम्हें सतत आशीष हमारा,बनो बीज से बोधि वृक्ष तुम

       
सोपान
विनीता शर्मा

बुधवार, 6 जून 2012

कितना भी भीगे मन बरसाती यादों से

आँखों की प्याली में आंसू मत घोलना

कितना भी घबराए केदी मन पिंजरे में
...
उड़ने से पहले निज पंखों को तोलना

अँधियारा गहराए कोई ना नियराये

संचित सब सुधियों की गठरी को खोलना

मीठी सौगंधों की मोह डोर काटकर

मन के बंजारे से मुक्ति मंत्र बोलना
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    रविवार, 13 मई 2012








    किसकी गोदी में अंकुर से फूटे ,महके और मुस्काए
    किसकी ममता ने सींचा,सहलाया,बीज व्रक्छ बन जाए
    किसके आंचल में लुक छिपकर,तुमने आँख मिचोनी खेली
    कौन ओदकर बीट बचपन,तुमसे फिर तुतलाकर बोली
    ,
    कौन सो गया नीद तुम्हारी,कौन जगा गहरी रातों में
    कष्ट तुम्हारा दर्द हमारा,क्या रिश्ता था उन बातों में
    किसने देवी देव पुजाये,कोई सङ्कट तुम्हे न घेरे
    मन्दिर में परशाद चडाए,मांगी मंनत साँझ सबेरे

    किसके कांधे पर सिर रखकर,बचपन को आवाज लगाई
    फिर से मैया मोरी कहकर,ममता की कुछ उमर बढाई
    किसने हाथ पकड कर तुमको,जीवन के सोपान चडाए
    क्या अच्छा क्या बुरा बताकर,मानवता के गुण समझाये

    समय मिले तो खोल खिद्कियाँ,मन के अन्दर कभी झाँकना
    गर्द हटा जीवन पुस्तक की,फिर अतीत के पृष्ठ बांचना

    सोमवार, 20 फ़रवरी 2012


    जिसे हम गीत कहते हैं


    जिसे हम गीत कहते हैं
    किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                        सहज संवेदनायें हैं


    किसी कवि ने कहा करुणा-कलित हो चंद छंदों में
    बनी सत प्रेरणा  सद भावना समवेत ग्रंथों में
    वनों में रम रहे ऋषि ने कहा जो वेद-वाणी में
    वो बचपन में सुनी हमने कभी माँ से कहानी में
    विगत में ताड़ पत्रों पर लिखी जातक कथायें हैं
                       समय की मान्यतायें हैं


    जिसे हम गीत कहते हैं
    किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                        सहज संवेदनायें हैं


    यही तो पत्थरों में प्रस्फुटित परिकल्पना सी है
    यही तस्वीर के रंग में सजाई अल्पना सी है
    अश्रुपूरित आँख की ये अनकही अनुयाचना सी है
    दुआ को उठ रहे दो हाथ की ये वंदना सी है
    निरंतर मंदिरों में गूँजती सी प्रार्थनायें हैं
                   समर्पित साधनायें हैं


    जिसे हम गीत कहते हैं
    किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                        सहज संवेदनायें हैं


    नदी तट बैठ हमने भावना के दीप-दहकाये
    किये जल में प्रवाहित कुछ नहीं सोचा कहाँ जाये
    कोई ठहरे वहीं कुछ बह गये मझधार में आये
    किसी को ले गई लहरें बहा उस पार पहुँचाये
    हृदय के भाव शब्दों को समर्पित व्यंजनायें हैं
                       कवि की कल्पनायें हैं


    जिसे हम गीत कहते हैं
    किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचायें हैं
                        सहज संवेदनायें हैं








    शनिवार, 18 फ़रवरी 2012


    नज़र से नज़रें मिले तो


    नज़र से नज़रें मिले तो
    बाँच लेना मौन मेरा


    लाज के उस एक झीने आवरण से
    बिन कहे सब कुछ बताना
    प्यार का पहला चरण है
    और यदि नज़रें झुकें तो समझ जाना
    अनकहा ये समर्पण है
    मौन का निःशब्द क्षण है


    आँख की गहराइयाँ भी झील से ज़्यादा बड़ी है
    तुम उतर पाए अगर तो
    प्यार का मोती मिलेगा
    जो अभी तक अनछुआ है
    और बिन मांगी दुआ है
    जो उतर आई किनारों पर
    उस सुनहरी साँझ का जलता हुआ पहला दिया है


    तुम अगर पहचान पाये
    तुम अगर ये जान पाये
    इस समुन्दर में यहाँ सीपी बहुत हैं
    किन्तु सबमें तो वही मोती नहीं बनता
    चितवनों से दे निमंत्रण जो उतर जाये हृदय में
    मौन हो जाता मुखर है
    मौन का निःशब्द स्वर है


    नज़र से नज़रें मिलें तो
    बाँच लेना मौन मेरा












    मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में
    किन्तु मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    शब्द निकले हैं सफ़र पर अर्थ अपना ढूँढ़ लाने
    चल पड़े मन्तव्य ले गंतव्य उसका आज़माने
    अनकही बातें भी अक्सर शीत कर देतीं शिरायें
    ये जिया अहसास है अभिव्यक्ति का बंधन नहीं है
      और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    हमारी आँख का पानी तुम्हारी आँख धोये ये कभी होता नहीं है
    ज्यों किसी की नींद कोई दूसरा सोता नहीं है
    उमड़ता बादल भले बरसे कहीं बरसात बनकर
    प्रेम की पेंगे बढ़ाता मन चला सावन नहीं है
      और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    जो स्वयं बैठे अहम्‌ की कुंडली में बांध ली है लौह जैसी श्रंखलायें
    हो गए पत्थर सभी जज़्बात जिनके वे पता संवेदना का क्या बतायें
    रूबरू जो कर न पाये सूरतों को आइने में
    और कुछ होगा मगर दर्पण नहीं है
      और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    है कहाँ आशीष देते हाथ जो मन का कलुष संताप धोयें
    अश्रु से गीली हुई माटी में आकर शांति के सुख के कभी कुछ बीज बोये
    आज शिष्टाचार के लगते मुखौटे हैं असीमित प्यार के किरदार छोटे
    और मन का मान रखने सहज अपनापन नहीं है
      और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है


    प्रार्थना अंतरमुखी अनुभूति मन की आत्मा का अर्थवाची आचमन है
    शब्द परिभाषित नहीं करते इसे, वे सहज संवेदना का संकलन है
    हो गए पाषाण राधा-कृष्ण भी अब रास-रस से युक्त वृंदावन नहीं है
    अंग आभूषण सभी पानी चढ़े हैं हर चमकती चीज़ तो कंचन नहीं है
      और मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है



    है वही धड़कन तुम्हारे भी हृदय में